Saturday, May 16, 2015

आवश्यकता स्वयं को पहचानने की है

आवश्यकता स्वयं को पहचानने की है
स्वयं से स्वयं की पहचान यानी आंतरिक शक्ति का साक्षात्कार। आंतरिक शक्ति मनुष्य की जीवंत शक्ति होती है, जिसके बल पर वह ऐसे कार्य कर लेता है, जो आश्चर्यजनक होते हैं। यदि मनुष्य दृढ़ निश्चय कर लें तो वह किसी भी काम को आसानी से कर सकता है। सर्वप्रथम आवश्यकता स्वयं को पहचानने की है।
मनुष्य जीवन में दो सीढ़ियों में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। वे दो सीढ़ियां हैं सफलता और असफलता। कुछ मनुष्य जो प्रारंभ से ही जीवन को सफल बनाने के कार्य में जुट जाते हैं, वे अपने गुणों में वृद्धि करते हुए सफलता की सीढ़ी पर चढ़ते चले जाते हैं। उनमें जीवनपथ में आने वाली बाधाओं को पार करने की क्षमता होती है। वे बड़ी-से-बड़ी बाधा को आसानी से पार कर जाते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यही बाधाएं उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। असफलता भी मनुष्य को सफलता के लिए प्रेरित करती है। ठोकर लगने पर मनुष्य संभलकर चलता है, ठीक उसी प्रकार जब किसी मनुष्य को किसी कार्य में असफलता मिलती है तो वह उसे और सही ढंग व उत्साह से कार्य करने की प्रेरणा देती है, लेकिन केवल उन लोगों को जो सफलता प्राप्त करना चाहते हैं।
आचार्य तुलसी के शब्दों में ‘मानव का जीवन छाया और प्रकाशमय है। उसमें प्रकाश के साथ छाया भी होती है, जो लगभग अनिवार्य है, लेकिन अगर छाया में ही मनुष्य डूब जाए तो वह उसकी मदद करने वाली न होकर मारक होगी।’1यहां ‘छाया’ मनुष्य के अवगुण हैं और ‘प्रकाशमय’ मनुष्य के गुण। यदि मनुष्य छाया में ही डूबा रहे तो वह मारक होती है। आशय यह है कि यदि मनुष्य अवगुणों से पार नहीं पा सकता तो वे मनुष्य को नष्ट कर डालते हैं। जिस प्रकार बोझ को यदि बोझ समझकर उठाया जाए तो वह बोझ ही लगता है, लेकिन बोझ समझकर न उठाया जाए तो वह आसानी से उठाया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार इस जीवन को सफल बनाना है, यह समझकर जिया जाए तो मनुष्य अवश्य सफल होता है। मनुष्य अपने जीवन को कल के चक्कर में उलझाकर इधर-उधर भटक जाता है, जबकि उसे ज्ञात होना चाहिए कि जो भी है उसे वर्तमान में ही पूरा करना है।

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